| अनुभूति में संगीता 
					मनराल कीरचनाएँ-
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 खिड़कियाँ
 दायरे
 बरगद
 बारह नंबर वाली बस
 यादें
 काश
 बड़ी हो गई हूँ मैं
 मुठ्ठी में जकड़ा वक्त
 माँ
 मेरे गाँव का आँगन
 रात में भीगी पलकें
 वे रंग
 |  | बारह नंबर 
					वाली बस 
 मैं रोज़ की तरह
 आज भी
 उसी १२ नं॰ की बस से
 आफिस जाता हूँ
 वो बस
 बीच रस्ते में
 मुझे उतार देती थी
 लेकिन फिर भी
 तेरी एक झलक के लिए
 ये कम था
 मैं कंडक्टर की सीट
 की दायीं तरफ से
 चौथी सीट पर बैठा
 तुम्हारे स्टाप आने का
 इंतज़ार करता
 और तुम
 चुपचाप चढ़कर
 बाँयीं ओर
 से तीसरी सीट पर बैठ जाती
 मैं मंत्रमुग्ध-सा
 तुम्हें निहारता रहता
 और कई बार सोचता
 कि काश
 ये रस्ता
 तुम्हारा स्टाप आने तक
 बहुत लंबा हो जाए
 फिर तुम
 मुझसे पहले ही
 उतर जाती
 उस दिन तुम्हें
 अपनी
 बगल वाली सीट पर
 ना देखकर लगा
 तुम
 मुझसे
 बहुत दूर चली गई हो।
 
 १ अप्रैल २००६
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