| अनुभूति में
                  मोहन कीर्ति की रचनाएँ- हास्य 
                  व्यंग्य में-कुत्ते की वफ़ादारी
 मच्छर
 शर्मा जी की अर्ज़ी
 
 |  | कुत्ते की 
                  वफ़ादारी शहर से दूरभागते कुत्ते से
 मैंने पुछा-
 क्यों शहर छोड़कर जा रहे हो
 उसने कहा
 क्यों वेवकूफ़ बना रहे हो
 देखते नहीं
 आज मुझसे भी बड़े कुत्ते आ गए हैं
 मेरे हक पे हक जमा गए हैं
 अब उनमें नहीं रही
 पहले जैसी ईमानदारी
 इसीलिए तो मैंने भी
 छोड़ दी है वफ़ादारी
 पहले मुझे मिलता था
 खाना ढेर सारा
 मटन, बिरयानी, दुध और अंडा
 पूरी कचौड़ी का...
 अब कहाँ खाने में मटन और बिरयानी
 उन खानों से होती है कलाबाज़ारी
 क्या कहूँ यहाँ रहूँ और मरूँ?
 यहाँ तो -
 भाई-भाई के खून से हाथ रंगा है
 जिससे होली का रंग भी फीका पड़ा है
 इतना सुन मैं रोन लगा
 और वह समझाने लगा
 फिर कहा-
 आज इंसान हैवान बन गया है
 पग पग पर शैतान बन गया है
 भ्रष्टाचार, बलात्कार ईमान बन गया है
 शहर का कोना-कोना श्मशान बन गया है
 जा रहा हूँ मैं कहीं
 पीस न जाऊँ
 वफ़ादारी के नाम पर
 कलंक न लगाऊँ
 क्या मुँह दिखाऊँगा पूर्वजों को
 क्या जी पाऊँगा सिर उठाकर
 लेकिन -
 तुम मुझे अच्छे लगते हो
 दिल के भोले सच्चे लगते हो
 चलो साथ मेरे
 नई दुनिया बसाते है
 शहर से दुर जहाँ
 इंसान रहते हैं
 भगवान बसते हैं
 इंसान रहते हैं
 भगवान बसते हैं।
 ७ अप्रैल २००८ |