|  | गर्मी के दोहे 
 पानी दिखता ही नहीं, पाया 
				कारावास।
 होठों पर जलने लगी, अंगारों सी प्यास।।
 
 पीने की खातिर बचे, मिट्टी–बालू–रेत।
 मौन कुएँ के सामने, पंछी पड़ा अचेत।।
 
 गरम टीन सा तप रहा, हर कोमल एहसास।
 कोलतार पिघला मिला, सड़कें मिली उदास।।
 
 प्यासी है सारी प्रजा, सोया है सम्राट।
 अग्निकुंड से हो गए, पानी वाले घाट।।
 
 गरम धूल आँखों भरी, भरा न कोई घाव
 सीधे मँुह अब क्या कहें , औंधे मँुह की नाव।।
 
 आपस में करने लगीं, किरणें क्रूर सलाह।
 बड़े सवेरे हो गया, सूरज तानाशाह।।
 
 १६ फरवरी २००५
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