|  | साँसों को कब 
				तक भरमाएँ 
 आँगन की मुठ्ठी भर धूप गई,
 सीला मन कैसे गरमाएँ हम?
 
 दिन ने घी–सेंदुर के सौंतिये बनाए थे
 औ' भींतों छापे थे हल्दी के थापे,
 पर काली आँधी ने साँझ को अचानक आ
 उजियारे चेहरे वे हाथों से ढाँपे,
 गई सांझ सन्नाटा पसर गया,
 किस पर अब दृष्टि को टिकाएँ हम?
 
 थाली–सी बजने की सिर्फ़ गूँज सुन पड़ती,
 महराती आवाज़ें साँपिन की खाई,
 सपनों की धुँधुआती आँच लिए भाग्यहीन
 पर अलाव की गीली लकड़ी कडुआयी,
 गांठ–गांठ चिलकन से टूट रही,
 गठिया में कैसे अँगड़ाएँ हम?
 
 सूर्य मरा, बैठी है रात किसी विधवा–सी,
 मातमपुर्सी करते कुत्ते रोत हैं,
 सब तम की पर्तों–दर–पर्तों में से होकर
 लाश ज़िंदगी की सुबह तलक ढोते हैं,
 चंबल के आतंकी भरकों में,
 सांसों को कब तक भरमाएँ हम?
 
 १ सितंबर २००६
 |