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				खड़े हैं बौने शिखर पर
 हम अजित, पर जन्म से ही
 परायज का शाप ढोते,
 पुत्र सूरज के, घिरे हम, अंध–तम–घन।
 
 क्या न हम थे साहसी
 या किसी कौशल में कमी थी?
 जबकि केंद्रित लक्ष्य पर ही
 दृष्टि ये अपनी जमी थी,
 किंतु क्या चक्कर चला जो
 देखते ही रह गए हम,
 औन–पौनों को मिला वह लक्ष्य–भेदन।
 
 बुद्धि–प्रतिभा–श्रम सभी में
 आज भी हम श्रेष्ठतम हैं,
 ज़िंदगी की दौड़ में पर
 आज अपना अंत्य क्रम है,
 खड़े हैं बौने शिखर पर
 और हम हैं तलहटी में,
 जंगलों के बीच बनते सिर्फ ईंधन।
 
 कहें अपनी बदनसीबी
 या समय का फेर कह दें,
 ले कवच–कुंडल हमारे
 हमारे ही हमें शह दें,
 और ऐसे में धुनें सिर
 या कि कोसें मूर्खता को,
 पढ़ रहे खुद के लिए खुद मंत्र मारन।
 द्यूत वह, वह 
				लाखघर, वन–वास यह, ये यंत्रणाएँ,
 सिर्फ़ धोखे और छल की
 रूप लेती मंत्रणाएँ,
 देखते सब, जानते सब,
 सब्र करके सह रहे, पर
 अग्निवर्णी नयन में है तड़ित–तर्जन।
 
 १ सितंबर २००६
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