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                  अनुभूति में 
                      
        
                    जगदीश 
                    पंकज
                  
                  
                  की रचनाएँ—
                    नयी रचनाओं में-  कहीं पर
 कुलाँचें
 जख्मों का अहसास नहीं
 मैं थोड़ा मुस्कराना
 हम समंदर
 
                    नये गीतों में-  उकेरो हवा में अक्षर
 धूप आगे बढ़ गयी
 पोंछ दिया मैलापन
 मत कहो
 हम टँगी कंदील के बुझते दिये
 अंजुमन में-आज अपना दर्द
 कुछ घटना कुछ क्षण
 लो बोझ आसमान का
 वक्त को कुछ और
 शब्द जल जाएँगे
 
                    गीतों में-कबूतर लौटकर नभ से
 गीत है वह
 टूटते 
					नक्षत्र सा जीवन
 मुद्राएँ 
					बदल-बदलकर
 सब कुछ 
					नकार दो
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                    वक्त को कुछ और
					
                    
                    वक्त को कुछ और, थोड़ी सी हरारत 
					चाहिएअब ये लाज़िम है कि, हर शै को शरारत चाहिए
 
 आईने में देखकर चेहरा, वो शर्माने लगे
 जैसे शीशे पर उन्हें, कोई इबारत चाहिए।
 
 आज जिस्मो-जान, तहजीब-ओ-तमद्दुन बिक रहे
 और मेरे दौर को, कैसी तिजारत चाहिए
 
 हिल गयी दीवार, औ' बुनियाद भी हिलने लगी
 टिक सके तूफान में, ऐसी इमारत चाहिए
 
 लोग फिरते हैं, नकाबों को यहाँ पहने हुए
 कर सके जो बेहिजाबी, वह महारत चाहिए
 
 आप करते हैं हिकारत, आदमी से किसलिए
 जबकि अपनी ही हिकारत से, हिकारत चाहिए
 
 हम बहस करते रहे 'पंकज' जहाँ चलता रहा
 तय करो अहले-वतन किस ढंग का भारत चाहिए .
 
 २३ दिसंबर २०१३
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