| सोलह दोहे विचरहु पिय की डगरिया, बसहु पिया के गाँवपिय की ड्यौढ़ी बैठिकै, रटहु पिया कौ नांव।
 रात अंधेरे पाख की, दीपक हीन कुटीरआय संजोवहु दीयरा, हियरा भयौ अधीर।
 फूल्यौ यह जीवन विटप, फल्यौ आदि अभिशाप,संतापी हिय कुर रह्यौ नीरव मौन विलाप।
 विहंसी झूला झूल प्रिये, मम रसाल की डालकूकौ कोकिल-सी तनिक गूँजे सब दिक्-काल।
 काऊ कौं है निमिषवत अंतहीन यह कालकाऊ कौं छिन हू लगत ब्रह्म-दिवस विकराल।
 हंसा उड़े अकास में तऊ न छूट्यौ द्वन्दमन अरुझान्यौ ही रह्यौ मानसरोवर-फंद।
 हम बिराग आकास में बहुत उड़े दिन-रैनपै मन पिय-पग-राग में लिपटि रह्यौ बेचैन।
 सरद जुन्हाई अब कहाँ, कहाँ बसंत उछाहजीवन में अब बचि रह्यौ चिर निद्राध कौ दाह।
 नेह दियौ निष्ठा सहित, पायी घृणा अपारसेवा कौ मेवा मिल्यौ यह कृतघ्न व्यवहार।
 हम विषपायी जनम के सहे अबोल-कुबोलमानत न नैंकुन अनख हम जानत अपनौ मोल।
 पंछी बोलत चैं-चटक सलिल करत कलनादसब जग ध्वनियम है रह्यौ, हमें मौन-उन्माद।
 व्यर्थ भये निष्फल गए जोग साधना यत्नकौन समेट धूरि जब मन में पिय-सो रत्न।
 कहें धूनि की राख यह, कहें पिय चरण परागकहाँ बापुरी विरति यह, कहाँ स्नेह रस राग?
 अरुणा भई विभावरी ढूँढ़त पिय कौ गाँवकितै पिया की डगरिया, कितै पिया कौ ठांव?
 है या जग की मृत्तिका कछुक सदीस मलीनजामें मिलि है जात है चेतन चेतन-हीन!
 संस्मृति बनी अनूप, बसे रहौ तुम हृदय मेंकछु छाया कछु धूप, सरसावहु मन-गगन बिच।
 १ अगस्त २००५ १ अगस्त २००५ |