| तुम मृगनयनी तुम मृगनयनी, तुम पिकबयनीतुम छवि की परिणीता-सी,
 अपनी बेसुध मादकता में
 भूली-सी, भयभीता-सी।
 तुम उल्लास भरी आई होतुम आईं उच्छ्वास भरी,
 तुम क्या जानो मेरे उर में
 कितने युग की प्यास भरी।
 शत-शत मधु के शत-शत सपनोंकी पुलकित परछाईं-सी,
 मलय-विचुम्बित तुम ऊषा की
 अनुरंजित अरुणाई-सी,
 तुम अभिमान-भरी आई होअपना नव-अनुराग लिए,
 तुम क्या जानो कि मैं तप रहा
 किस आशा की आग लिए।
 भरे हुए सूनेपन के तममें विद्युत की रेखा-सी,
 असफलता के पट पर अंकित
 तुम आशा की लेखा-सी,
 आज हृदय में खिंच आई होतुम असीम उन्माद लिए,
 जब कि मिट रहा था मैं तिल-तिल
 सीमा का अपवाद लिए।
 चकित और अलसित आँखों मेंतुम सुख का संसार लिए,
 मंथर गति में तुम जीवन का
 गर्व भरा अधिकार लिए।
 डोल रही हो आज हाट मेंबोल प्यार के बोल यहाँ,
 मैं दीवाना निज प्राणों से
 करने आया मोल यहाँ।
 अरुण कपोलों पर लज्जा कीभीनी-सी मुस्कान लिए,
 सुरभित श्वासों में यौवन के
 अलसाए-से गान लिए,
 बरस पड़ी हो मेरे मरु मेंतुम सहसा रसधार बनी,
 तुममें लय होकर अभिलाषा
 एक बार साकार बनी।
 तुम हँसती-हँसती आई होहँसने और हँसाने को,
 मैं बैठा हूँ पाने को फिर
 पा करके लुट जाने को।
 तुम क्रीड़ा की उत्सुकता-सी,तुम रति की तन्मयता-सी,
 मेरे जीवन में तुम आओ,
 तुम जीवन की ममता-सी।
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