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अनुभूति में प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण की
रचनाएँ-

नयी कविताओं में-
अपने को मिटाना सीखो
एक दिन

ये मेरे कामकाजी शब्द

कविताओं में-
उभरूँगा फिर
एक धुन की तलाश
गुज़रे कल के बच्चे
घर लौट रहे बच्चे
चलती है हवा
जापान में पतझर
झरती पत्तियों ने
दिन दिन और दिन

ध्वन्यालेख तन्मयता के
निराला को याद करते हुए
मुक्ति
मौसम
लक्ष्य संधान
वसंत से वसंत
सार्थक है भटकाव

सुनो सुनो

  गुज़रे कल के बच्चे

ये हाशियों पर दर्ज़ चेहरे!
नहीं पराए
मेरे अपने हैं
आकाशगंगा से टूटे
सितारे नहीं
मेरे सपने हैं
ये गुज़रे कल के बच्चे हैं!

ये गुज़रे कल के बच्चे हैं
जिन्होंने सँवारा है हमारा आज
बस के टायरों के साथ-साथ भागते
बेचा है अख़बार

उनके सपनों के धागों से
बुनी गईं हैं हमारी सुविधाएँ
हमारे जूतों के नीचे बिछा कालीन
उनकी मासूम उँगलियों के खून की
रंगत से रंगा है।

उनके सपनों का कोई इतिहास नहीं
उनके पसीने का कोई दस्तावेज़ नहीं
वे हाशिओं में दर्ज़ चेहरे हैं
ये गुज़रे कल के बच्चे हैं।
नहीं पराये
मेरे अपने हैं।
ये गुज़रे कल के बच्चे हैं।

१६ जनवरी २००६

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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