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  इब्तिदा

अल्फ़ाज़ से दुल्हन तो नहीं सजती
चंद फूलों की भी तो ज़रूरत है।
चाहो तो कहीं से उधार ले आओ
बुतों से ये दुनिया नहीं बनती
ज़रूरत है तो अब अरमानों की
चाहो तो किसी बाज़ारे-दिल से उठा लाओ

नींद की ग़फलत गई, अपना भरम गया
वो चमकती हुई आँखें अब बेदार हैं
उन आँखों से
रूदादे-कैफ़े दो-जहाँ पढ़ लेंगे
ज़रा सबके-वफ़ा की किताब तो खोलो
हम तैयार हैं
ख्य़ाले-नागहानी का कौन सानी है?
इख्ल़ास के जज़ीरें हों
या
बेअमाँ दायरों में दायरे हों
वक़्त कहीं छुपा है किसी के आगोश में
आओ हमआहंग होकर हम तुम
इक इब्तिदा कर लें
शायद इक फ़िज़ा बन जाए
फिर से इश्क में जीने की

२४ मार्च २००६

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