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हँसी 

 

हँसी

मुद्दत हुई है कब सुनी थी वो हँसी जो गगन चूमे
और जो काली घटा पे बन के लाली बिखर जाए।

वो हँसी कि जिसको सुनने के लिए झरनों का पानी
ऊँचे पहाड़ों से निकल मेरे शहर में उतर आए।

मुद्दत हुई है कब सुनी थी वो हँसी।
मुद्दत हुई है।

लौटा दो मुझको वो हँसी वो खोया बचपन
वो माँ का आँचल जिसमें ढेरों झूले खाए।

ऐसे हँसो कि यों लगे ज्यों कोई गुड़िया
बचपन की बारिश में उछल के फिसल जाए।

मुद्दत हुई है कब सुनी थी वो हँसी।
मुद्दत हुई है।

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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