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बाँसुरी मैं-

ग्रंथियों के बंध से कर मुक्त तुमने
काठ थी सूखी कि रच-रच कर सँवारा,
रंध्र, रच, जड़ सुप्त उर के द्वार खोले
राग से भर कर मुझे तुमने पुकारा

पोरुओं से परस, कैसा तंत्र साधा
कर दिया तुमने सकारथ वेदना को,
मंत्र जाग्रत कर दिया फिर-फिर स्वरित कर
दीप्ति दी, धुँधला रही-सी चेतना को

जुड़ गई जिस क्षण तुम्हारी दिव्यता से
देह की जड़ता जकड़ किस भाँति पाए
नहीं कुछ भी व्यापता तन्मय हृदय को
बोध तो सारे तुम्हीं में जा समाए

बाह्य से हो कर विमुख अंतस्थता में
डूब कर ही तो व्यथा से त्राण पाया
आत्म-विस्मृति से उबर किस भाँति पाऊँ
उच्छलित आनन्द जब उर में समाया

पात्रता दी राग भर अपना तुम्हीं ने
साध कर अपने करों में मान्यता दी
बावली मति धार सिर, आश्वस्ति दे दी
सरस अधरों से परस कर धन्यता दी

फूँक दे तुमने कि मोहन मंत्र साधा
गा उठीं जीवन्त हो कर तंत्रिकाएँ
भर दिये उर में अचिर अनुराग के कण
नाच उठतीं मोरपंखी चंद्रिकाएँ

चल रहा अभिचार यह कैसा तुम्हारा
प्राण, वीणा से सतत झंकारते हैं
उमड़ आते ज्वार, मानस के जलधि में
तोड़ते तटबंध तुम्हें पुकारते हैं

फिर वही स्वर जागते अंतरभुवन में
रास राका ज्योत्स्ना यमुना किनारे
प्रेम का संदेश जब भी गूँज भरता
तुम्ही-तुम हर ओर शत-शत रूप धारे

वंश की लघु- खंडता से मुक्ति दे
अवरुद्ध अंतर-वासना तुमने सँवारी
पूर्णता पाई तुम्हारे अंग से लग
चिर-सुहागिन बाँसुरी मैं हूँ तुम्हारी

१ फरवरी २०२३

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