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					चंद्र शेखर त्रिवेदी
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 अर्जुन का मानसिक द्वंद्व
 मौन मधुशाला
  
                 |  | अपनी बात 
 कृष्ण वचन है भगवद्गीता,
 मैं तो केवल दोहराऊँगा।
 मेरा अपना नहीं यहाँ कुछ,
 बस सुना सुनाया ही गाऊँगा।।१।।
 
 शुरू व्यास ने किया गान यह,
 बहुत ज्ञानियों ने गाया।
 सुनकर सबका, पढ़कर पुस्तक,
 मेरे मन में भी आया।।२।।
 
 मन में उठी कामना ऐसी,
 गीता ज्ञान सुलभ हो।
 दुनिया समझे, मैं भी समझूँ,
 जगद्गुरु की बात सहज हो।।३।।
 
 कथाकार माध्यम है केवल,
 सारे भाव सृजनकर्ता के।
 शब्द लेखनी लिखती है, लेकिन,
 प्रेरित सब उस दुःखहर्ता के।।४।।
 
 चाँद पकड़ते बालक जैसे,
 हाथ खोल लपकाए।
 मेरा यह प्रयास वैसा ही,
 कृष्ण पूर्ण हो जाए।।५।।
 
 अर्जुन का मानसिक द्वंद्व
 
 कुरुक्षेत्र के धर्मक्षेत्र में,
 सेना दोनो खड़ीं विशाल।
 अर्जुन बोले सखा कृष्ण से,
 चलो देख आएँ सब हाल।।१।।
 
 किसका वध करना है निश्चित,
 किससे टक्कर लेनी है।
 मरने की इच्छा ले आए,
 दुर्योधन के सैनी हैं।।२।।
 
 कौन खड़े हैं शत्रु सामने,
 किन्हें वीरगति पाना है।
 बाणों की मुद्रा में गिनकर,
 किनका कर्ज चुकाना है।।३।।
 
 बहुत ऋणी हम इन दुष्टों के,
 अन्यायों का कर्जा बाकी।
 बालकपन से ही इन सबने,
 दुष्कर्मों की सीमा नापी।।४।।
 
 बाल भीम को जहर खिलाकर,
 गंगाजी में फेंक दिया था।
 लाक्षागृह में आग लगाई,
 पाञ्चाली को निर्वस्त्र किया था।।५।।
 
 झूठे पाँसे हाथों लेकर,
 शकुनि ने षड़यंत्र रचाया।
 धर्मराज के सरल हृदय में,
 ऐसा कुछ विश्वास जमाया।।६।।
 
 छल की चौपड़ का जाल बिछाकर,
 अग्रज को ऐसा बहका कर।
 सर्वस्व ले लिया बेईमानी से,
 हम सब को वनवास दिलाकर।।७।।
 
 तेरह वर्ष फिरे हम वन वन,
 कितने घूमे पर्वत खाई।
 शीत, धूप, बरसात सही सब
 कितनी बार जान पर आई।।८।।
 
 वचन दिया था लौटाने का,
 राज्य सभी वनवास अवधि पर।
 बात बदल दी अब तुम देखो,
 नहींं भूमि है सुई नोक भर।।९।।
 
 आशा यही अवधि पूरी कर,
 लौटेंगें हम सब भाई घर।
 इन्द्रप्रस्थ में सब स्वजनों संग,
 शान्ति पूर्ण जीवन बीतेगा।।१०।।
 
 कर्ण सारथी का है पाला,
 राज रक्त की बूँद नहीं है।
 उसको अंग देश का राजा,
 मानो राज विहीन मही है।।११।।
 
 उसको अंग देश का राजा,
 क्षण भर में ही माना, माधव।
 पाण्डु वंश के शत्रु इकट्ठे,
 दुर्योधन की शक्ति यादव।।१२।।
 
 कुरुवंशी हम राज्यधिकारी,
 दिग्विजयी पाण्डु सन्तान।
 पाँच गाँव भी हमको मुश्किल,
 असहनीय ऐसा अपमान।।१३।।
 
 भीष्म पितामह सेनापति थे,
 कौरव दल के पुरुष प्रधान।
 पाण्डव सेना के रण संचालक,
 धृष्टद्युम्न थे वीर महान।।१४।।
 
 दुर्योधन ने कहा द्रोण से,
 गुरुवर सुनें दास की बात।
 धृष्टद्युम्न यह शिष्य आपका,
 युद्ध कला में है प्रख्यात।।१५।।
 
 रणविद्या कौशल में इससे,
 कुशल नहीं हैं ज्यादा लोग।
 पिता द्रुपद की पर अभद्रता,
 अभी नहीं भूले हम लोग।।१६।।
 
 बड़े बड़े योद्धा ले आए,
 अर्जुन भीम रथी युयुधान।
 अस्त्र शस्त्र ले सज कर आए,
 धृष्टकेतु, विराट, चेकितान।।१७।।
 
 युधामन्यु, विक्रान्त खड़े हैं,
 पुरुजित, कुन्तिभोज दो भाई।
 अभिमन्यु सा वीर सामने,
 काशिराज की स्ोना आई।।१८।।
 
 अपनी ओर नहीं कम ताकत,
 योद्धा बहुत वीर बलवान।
 आप स्वयं हैं, और पितामह,
 अश्वत्थामा, विकर्ण गुणवान।।१९।।
 
 शल्य, जयद्रथ, कृपाचार्य हैं,
 महारथी कर्ण धनुवान।
 भूरिश्रवा, भगदत्त पराक्रमी,
 और असंख्य शूर बलवान।।२०।।
 
 उभय पक्ष के वीर गिना कर,
 नृप ने यह निष्कर्ष सुनाया।
 गणना, तुलना करके सबकी,
 अपने दल को श्रेष्ठ बताया।।२१।।
 
 पराक्रमी पाण्डव हैं यद्यपि,
 भीम गदा है अति बलवान।
 भीष्म पितामह के रक्षण में,
 अपना दल है सबल महान।।२२।।
 
 ग्यारह अक्षौहिणी सात से ज्यादा,
 संख्या में हैं हम बलवान।
 दलपति अपने अधिक अनुभवी,
 विजयी योद्धा वीर जवान।।२३।।
 
 कृष्ण जानते हैं दुर्बलता,
 पाण्डव दल का बल अति क्षीण।
 स्वयं सारथी बने निहत्थे,
 प्राण बचाने में तल्लीन।।२४।।
 
 इसी लिए तो यादव सेना,
 कौरव दल के की है हाथ।
 प्रियजन, परिजन बचे रहेंगें,
 विजयी हुए हमारे साथ।।२५।।
 
 कृष्ण नाम ही नहीं, हृदय भी
 इनका है, उतना ही श्याम।
 मेरे हित के सदा विपक्षी,
 अर्जुन के साथी अविराम।।२६।।
 
 परम्परा है यही सदा से,
 ज्येष्ठ पुत्र का राजतिलक है।
 दृष्टिहीन धृतराष्ट्र हुए जब,
 पाण्डु प्रबन्धक थोड़े दिन के।।२७।।
 
 ज्येष्ठ पुत्र का ज्येष्ठ पुत्र मैं,
 यह बात बहुत ही छोटी है।
 पाण्डु पुत्र क्यों नहीं समझते,
 इनकी इसमें क्या हेठी है।।२८।।
 
 अब वयस्क मैं उत्तराधिकारी,
 कुरुवंशी सिंहासन का।
 यह पाण्डव हैं व्यर्थ झगड़ते,
 अधिकार नहीं कोई इनका।।२९।।
 
 लेकर आए सेना इतनी,
 कुरुवंशी के शत्रु साथ में।
 राजद्रोह अपराधी यह सब,
 मृत्यु दण्ड ही सही न्याय में।।३०।।
 
 अगर छोड़ दूँ आज इन्हें तो,
 झगड़ा कहाँ खत्म होगा।
 हस्तक्षेप रहेगा हरदम,
 राज काज मुश्किल होगा।।३१।।
 
 पाँच गाँव लेकर भी तो यह,
 चैन कहाँ पाने वाले।
 लक्ष्य सधा है भरत राज्य पर,
 हैं राज लोभ के मतवाले।।३२।।
 
 एक देश में दो हों राजा,
 अनुचित, गलत, असम्भव है।
 एक माँद में सिंह रहें दो,
 गुरुवर कैसै सम्भव है।।३३।।
 
 एक समय में एक पति बस,
 जग में प्रचलित यह व्यव्हार।
 पांचाली के पाँच देखिए,
 कैसा इसका कुलटाचार।।३४।।
 
 अन्धे का बेटा अन्धा ही,
 कहकर इसने हँसी उड़ाई।
 मर्यादा का ध्यान नहीं, बस
 अतिथि अनादर की अधिकाई।।३५।।
 
 हाथ लिए जयमाल खड़ी थी,
 वर की आस लगाए।
 शर्त विजय की सीधी सी थी,
 बस मत्स्य नेत्र भिद जाए।।३६।।
 
 अंगराज ने धनुष उठाया,
 पीछे तुरत हटी जयमाल।
 महारथी अपमान सभा में,
 सारथि पुत्र नहीं स्वीकार।।३७।।
 
 केवल एक जरा सी चिन्ता,
 मेरे मन में भारी है।
 एक शिखण्डी पाण्डव दल में,
 भीष्म पितामह का वैरी है।।३८।।
 
 पूर्व समय में नारी था वह,
 यह भेद पितामह को मालुम है।
 वध के लायक नहीं समझते,
 धर्म युद्ध के कठिन नियम हैं।।३९।।
 
 अगर सामने आया भी तो,
 उस पर नहीं प्रहार करेंगें।
 नियमोल्लंघन से ही डरते हैं,
 धर्म निषिद्ध कुछ नहीं करेंगें।।४०।।
 
 पाण्डव भी यह भेद जानते,
 हो सकता है चाल चलें कुछ।
 छुपे शिखण्डी के पीछे यह,
 वीर भीष्म पर घात करें सब।।४१।।
 
 सेनापति के हत होने से,
 सेना का मनबल टूटेगा।
 देख पितामह हुए धराशय,
 शूरों का साहस छूटेगा।।४२।।
 
 नायक सारे व्यूह बना कर,
 रहें सतर्क, सजग, तैनात।
 शत्रु चतुर है, किसी दिशा से,
 सहसा कर सकता है घात।। ४३।।
 
 भीष्म पितामह रहें सुरक्षित,
 रण योजना सफल होगी।
 पाण्डव दल की सरल पराजय,
 अपनी सुगम विजय होगी ।।४४।।
 
 केशव ने ला खड़ा किया रथ,
 दोनो सेनाओं के मध्य।
 माधव बोले, अर्जुन देखो,
 अदभुत वीरोचित यह दृष्य।।४५।।
 
 व्यूह बनाए वीर खड़े हैं,
 धनुष, बाण, तलवार सजाए।
 पंक्तिबद्ध सैनिक यह देखो,
 भाले, ढाल, कृपाण उठाए।।४६।।
 
 शत्रु नहीं देखे अर्जुन ने,
 कोई विरोधी दल के।
 केवल प्रियजन, स्वजन वहाँ थे,
 स्नेही जन सब घर के।।४७।।
 
 मामा, चाचा, गुरु खड़े थे,
 मित्र पुराने बचपन के।
 भाई, भतीजे कितने देखे,
 सम्बन्धी अपनेपन के।।४८।।
 
 जिनकी गोद में खेले अर्जुन,
 जिनको गोद खिलाया।
 देख उन्हीं को सम्मुख रण में,
 मन विचलित घबराया।।४९।।
 
 कहा कृष्ण से यह क्या अनुभव,
 रोमांचित सारा तन।
 कैसे युद्ध करूँगा इनसे,
 जिन पर न्योछावर जीवन, धन।।५०।।
 
 अरे, इन्हीं के पीछे दुनिया,
 अर्जित, संचित करती सब कुछ।
 इन्हें मार कर कैसै भोगूँ,
 राज, महल, धन, वैभव के सुख।।५१।।
 
 अंग शिथिल हैं, तन थर्राता,
 धनुष सम्हलता नहीं हाथ में।
 वध कुटुम्ब का ही करना है,
 किसने मेरे लिखा भाग्य में।।५२।।
 
 निज कुल घात में पाप बहुत हैं,
 ताप बहुत, संताप बहुत है।
 इस पातक में लाभ न कोई,
 कुल कृतघ्न अपराध बहुत है।।५३।।
 
 पृथ्वी की तो क्या है गिनती,
 त्रिभुवन वैभव भी है त्याज्य।
 अगर मार कर इन्हें मिले तो,
 कैसा वैभव, कैसा राज्य।।५४।।
 
 भृष्ट चित्त कौरव हैं लोभी,
 तुले हुए हैं कुल विनाश पर।
 स्पष्ट नहीं परिणाम इन्हें कुछ,
 युद्ध काल के सर्वनाश का।।५५।।
 
 नष्टकार है रण समाज का,
 बच्चे करता बहुत अनाथ।
 कुलवधुएँ विधवाएँ करता,
 रण करता दूषित समाज।।५६।।
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