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अनुभूति में रवींद्र स्वप्निल प्रजापति
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मेरी नसों में बह रहा है शहर
मैंने तुम्हें
यों हमने प्यार किया
समय की चादर

 

यों हमने प्यार किया

मेरे शहर में अंधेरा पुल और जंगल था
मेरी तरफ़ अंधेरा और जंगल था
और तुम्हारी तरफ़ पुल और शहर था

मैं अंधेरे में एक कदम चला
और तुम शहर से पुल के पास आ गईं
चाँदनी रात में वक्त का पानी था
जैसे संसार की हर गति का प्रतिबिम्ब था
फिर मैंने पानी में अपना कदम रखा
और फिर तुम बेतवा बन गईं

हम नदी के साथ थे
मैं पुल का पिलर और तुम लहर थीं
वक्त का पानी बहता रहा हमें छूकर
क्यों हमने प्यार किया और वक्त के गवाह बने
आज लाखों साल बाद
राह पानी हमारे बीच बह रहा है
चारा

तुम चुप थीं और मैं भी चुप था
हमारे बीच चारा का कप था
धूप का सुनहरा रंग लिए
उसकी सुनहरी किनार पर
तुम्हारी आँखें चमक रही थीं

बहुत देर तक चारा एक
ज़िंदगी की उपेक्षा में ठंडी होती रही
फिर तुमने उँगली से चारा पर जमी परत हटा दी
मैंने कप को उठा कर ओंठों से लगा लिया

५ जनवरी २००९

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