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अनुभूति में रति सक्सेना की रचनाएँ

कविताओं में -
अंधेरों के दरख्
अधबने मकानों में खेलते बच्चे
अल्जाइमर के दलदल में माँ
उसका आलिंगन
उसके सपने
जंगल होती वह
जनसंघर्
टूटना पहाड क़ा
तमाम आतंकों के खिलाफ़
प्लास्टिकी वक्त में
बाजारू भाषा
बुढिया की बातें
भीड में अकेलापन
मौत और ज़िन्दगी
याद
वक्त के विरोध में
रसोई की पनाह
सपने देखता समुद्र

 

अल्जाइमर के दलदल में माँ

थरथराते कदम
बढे भविष्य की ओर
पाँव रगडा, फिसल पड़ी वह
भूत में, लगी किलकने
देखा पेड़ बात कर रहे हैं
बतियाने लगी
टहनियों-पंत्तियों से
नीम की, नाना के आँगन में
वापस लाई मैं उसे, ज़ोर-ज़बरदस्ती कर
नारियल दरख्तों की ऊँचाई में कि
रूठ गई
जा पहुँची दौड
मामा की बरैठी में
खोजने लगी वे सारें पते
स्याही मिट चली थी जिनकी

खींच-खींच कर लाती हूँ
बन जाती है वह
नन्हीं बच्ची बार-बार
अल्जाइमर की दलदल में
फँसती हुई
माँ।

अब मेरी बारी है
मैं बनाऊँगी तुम्हारी चुटिया
तुमने खींच दिए न
मेरे सारे बाल
चुपड दिया तेल

झरे पके बालों पर हाथ फिराती
प्रौढा बनी बच्ची सोच रही है
कब चिडचिडाती बच्ची
जवान हुई, कब माँ बूढी
बन गई बच्ची।

परेशान है वह आजकल
स्मृतियों के झगडों से
अभी जो घटा
पुंछ गया
पीछे से चला आया
स्मृतियों का सिलसिला

भूल रही है
चलते शब्दों का अर्थ
घुसपैठ कर रही हैं
किस्सागोइयाँ
सो रही थीं जो
कभी छींके में चढ कर।

बिस्तरा गीला कर
तकिए से छिपाती हुई वह
देखती है चोरी-चोरी
फटकार खा भी
खिलाती हँसी की कली
होठों के कोने में तैरती
शैतानी,
ओफ
यह माँ है कि
अल्हड बच्ची।

आजकल बात करते हैं
सभी, उससे
कुर्सी मेज या फिर संदूक
चले आते हैं उसके कमरे में
बेधड़क, बंदर कुत्ते शेर-चीते
मक्खियों से खेलती
चीटियाँ नाचती
न जाने कब और कैसे
माँ बन गई
उन सब की सखी
सयानों को नहीं दीखते कभी।

कटती पतंग-सी
हाथ से खिसक रही है
माँ, अल्जाइमर के दलदल में फँसी।

९ मई २००५

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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