|  | छे दोहे 
 कितना कुछ खोना पड़े, पहुँच बड़ों के पास
 नदी मिली जब सिंधु से, खारी हुई मिठास
 
 समय हमेशा ही नहीं, रहे एक-सा बंधु
 कल पर्वत थे जिस जगह, आज वहाँ है सिंधु
 
 चाहे आंधी तोड़ दे, मौसम दे झकझोर
 वृक्ष बढ़ेंगे जाएँगे, आसमान की ओर
 
 कितनी हों अनहोनियाँ, कितने भी अंधेर
 पर गुलाब की डाल पर, फूले नहीं कनेर
 
 सुखी छदम्मी लाल हैं, लखपति दुखी-उदास
 जीना जिसको आ गया, सब सुख उसके पास
 
 सचमुच होनी चाहिए, कुछ पाने की चाह
 जुगनू तक ने ढूँढ़ ली, अंधियारे में राह।
 
 १ मई २००५
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