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कोरा कागज़

कोरा कागज़ लिये फिरता
आँकता जब भी तस्वीर कोई
साँसें भरता उनमें
और अगले ही पल
ओझल हो जाती तस्वीर।
बस मुस्कुरा कर देखता
हवा में तैरती
धुआँ बन लहराती
गुम होती तस्वीर।
अब भरने लगा कागज कोरे
ख्यालों में उभरते बोल
गूँजते रहते काली गुफा में
गुम हो जाते सूरज के उगते
और रह जाता कोरा कागज
कोरा का कोरा।
सुना है आजकल फिर रहा
वीरान रेगिस्तान में, बन एक मरीचिका
आड़ी तिरछी खींचता रहता लकीरें
कभी दूब तो कभी बादल
कभी सितारे तो कभी ताल तलैया
आँकता रहता और
भरता जाता साँसे उनमें
यायावरी में बिखेरता जाता
बुने हुए अपने सपने
पर अब भी साथ उसके
अनेकों ख्याल और कोरा कागज़।

६ अप्रैल २०१५

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