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अन्धा युद्ध

प्रिय
स्वागत है तुम्हारा
युद्ध विजयी
जो हुए तुम।
तुम्हारे लिये ही
सजा रखा
यह विजय थाल
थक गईं पलकें
तुम्हारे इंतज़ार में।
यहाँ
क्यों ले कर आये?
हे प्रिय
क्या यही था
समरांगन तुम्हारा?
तुम -
कहाँ विजयी हुए?
जीते तो लोमड़, सियाल और गिद्ध-
हार गए प्रेम, विश्वास और जिजीविषा जीजिवासा।
मसान जीत लाये,
हार कर बस्तियाँ।
मिटी कहाँ सीमाएँ
बस कुछ और
हो गयीं परे।
क्या
नहीं जान पाए
अपने ही शत्रु को?
महसूस ही कब की तुमने
पीड़ा सृजन की।
हे प्रिय!
आओ अब चलें
इस राह से
उस कल्प वृक्ष तक।
उतार लायें उन अस्त्रों को
जो छिपा रखा है
न जाने कितनी सदियों से।
कहाँ अवरुद्ध हुआ
द्वार प्रस्थान का?
हे प्रिय,
क्या एक और महायुद्ध
नहीं लड़ोगे मेरे लिये?
विजयी होकर
है तुम्हें लौटना।
मेरे इन्द्रधनुषी
सपने करने तुम्हें
साकार।
इस अंधे युद्ध से
भीषण, भयावह
और एक सिर्फ...

६ अप्रैल २०१५

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