दस मुक्तक
                  एक
                  हम शूल को भी फूल 
                  बना सकते हैं
                  प्रतिकूल को अनुकूल बना सकते हैं
                  हम मस्त वो माँझी हैं जो मँझधारों में
                  हर लहर को भी कूल बना सकते हैं।
                  दो
                  मैं सूर्य की हर 
                  धुँधली किरण बदलूँगा
                  बदनाम हवाओं का चलन बदलूँगा
                  रंगीन बहारों को मनाने के लिए
                  मैं शूल का तन फूल का मन बदलूँगा।
                  तीन
                  तुम एकता का दीप 
                  जलाकर देखो,
                  हाथों में "तिरंगे" को उठाकर देखो
                  चल देगा सकल देश तुम्हारे पीछे
                  इक बार कदम आगे बढ़ाकर देखो।
                  चार
                  अब और नहीं समय 
                  गँवाना है तुम्हें,
                  दुख सह के भी कर्त्तव्य निभाना है तुम्हें
                  यौवन में बड़ी शक्ति है यह मत भूलो
                  हर बूँद से तूफान उठाना है तुम्हें।
                  पाँच
                  पंछी ये समझते हें 
                  चमन बदला है,
                  हँसते हैं सितारे कि गगन बदला है।
                  शमशान की कहती है मगर खामोशी,
                  है लाश वही सिर्फ कफ़न बदला है।
                  छह
                  यदि कंस का 
                  विष-अंश अभी बाकी है,
                  तो कृष्ण का भी वंश अभी बाकी है।
                  माना कि सभी ओर अँधेरा छाया,
                  पर ज्योति का कुछ अंश अभी बाकी है।
                  सात
                  हिन्दी तो सकल 
                  जनता की अभिलाषा है,
                  संकल्प है, सपना है, सबकी आशा है।
                  भारत को एक राष्ट्र बनाने के लिए,
                  हिन्दी ही एकमात्र सही भाषा है।
                  आठ
                  हिन्दी में कला ही 
                  नहीं, विज्ञान भी है,
                  राष्ट्रीय एकता की ये पहचान भी है।
                  हिन्दी में तुलसी, सूर या मीरा ही नहीं,
                  उसमें रहीम, जायसी, रसखान भी है।
                  नौ
                  जब कवि का हृदय 
                  भाव-प्रवण होता है,
                  अनुभूति का भी स्रोत गहन होता है।
                  लहराने लगे बिन्दु में ही जब सिन्धु,
                  वास्तव में वही सृजन का क्षण होता है।
                  दस
                  जब भाव के सागर 
                  में ज्वार आता है,
                  अभिव्यक्ति को मन कवि का छटपटाता है।
                  सीपी से निकलते हैं चमकते मोती,
                  संवेदना से ही सृजन का नाता है।
                  
   १२ 
          
      
   जुलाई २०१०