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अभिव्यक्ति तुक-कोश

१३. ४. २०१८

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घाटियों में ऋतु

 

 

घाटियों में
ऋतु सुखाने लगी है 
मेघ धोये वस्त्र अनगिन रंग के 
आ गए दिन
धूप के सत्संग के

पर्वतों पर
छन्द फिर बिखरा दिये हैं 
लौटकर जातीं घटाओं ने
पेड़‚ फिर पढ़ने लगी हैं‚ धूप के अखबार 
फुरसत से दिशाओं में

निकल
फूलों के नशीले बार से 
लड़खड़ाती है हवा
पाँव दो‚ पड़ते नहीं हैं ढँग के
आ गए दिन‚ धूप के
सत्संग के  

बँध न पाई
निर्झरों की बौह‚ उफनाई नदी
तटों से मुँह 'जोड़ बतियाने लगी है
निकल जंगल की भुजाओं से 
एक आदिम गन्ध  
आँगन की तरफ आने लगी है

आँख में
आकाश की चुभने लगे हैं  
दृश्य शीतल नेह–देह प्रसंग के 
आ गए दिन‚ धूप के
सत्संग के

- विनोद निगम

इस माह


ग्रीष्म ऋतु के स्वागत में
महोत्सव मनाएँगे
और पूरे माह हर रोज एक नया
ग्रीष्म गीत मुखपृष्ठ पर सजाएँगे।
रचनाकारों और पाठकों से आग्रह है
आप भी आएँ
अपनी उपस्थिति से उत्सव को सफल बनाएँ
तो देर किस बात की
अपनी रचनाएँ प्रकाशित करना शुरू करें
कहीं देर न हो जाय
और ग्रीष्म का यह उत्सव
आपकी रचना के बिना ही गुजर जाए

गीतों में-

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अनूप अशेष

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आभा सक्सेना दूनवी

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कल्पना मनोरमा

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कल्पना रामानी

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कुमार रवीन्द्र

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कृष्ण भारतीय

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गरिमा सक्सेना

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चन्द्रप्रकाश पाण्डे

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देवव्रत जोशी

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देवेन्द्र सफल

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प्रदीप शुक्ल

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बसंत कुमार शर्मा

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ब्रजनाथ श्रीवास्तव

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मधु शुक्ला

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मलखान सिंह सिसौदिया

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रंजना गुप्ता

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राजेन्द्र वर्मा

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राहुल शिवाय

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विनोद निगम

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शशिकांत गीते

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शिवानंद सिंह सहयोगी

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शीलेन्द्र सिंह चौहान

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सीमा अग्रवाल

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सुरेन्द्र कुमार शर्मा

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सुरेन्द्रपाल वैद्य

छंदमुक्त में-

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अजित कुमार

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अश्विन गांधी

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मधु संधु

छंद में-

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ओमप्रकाश नौटियाल

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परमजीतकौर रीत

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी