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५. ४. २०१८

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धूप निगोड़ी है

 

 

पीपल नीचे छाज चलाये
धूप निगोड़ी है
एक जगह भी टिक न पाए
धूप भगोड़ी है

सुबह सुबह ही दस्तक देती
है मेरे घर पर
बिस्तर बोरी लिए खड़ी है
मेरे ही सर पर
देख साँझ को जाता सूरज
सरपट दौड़ी है

खिड़की ऊपर परदे रहते हैं
घर के अंदर
ठीक दोपहरी नींद लग रही
सपनों सी सुंदर
धूप और लू की ये
कितनी सुंदर जोड़ी है

भाभी ने छुटके भैया को
टेर बुलाया है
उनका कुछ तीखा खाने को
मन कर आया है
छुटके भैया के हाथों में
भरी कचौड़ी है

माथे से बह बह कर नदियाँ
मिलतीं टखनों से
सजते हैं मस्तक पर बिंदु
सुंदर गहनों से
स्वेद कणों से भीगी चुनरी
खूब निचोड़ी है

- आभा सक्सेना दूनवी

इस माह


ग्रीष्म ऋतु के स्वागत में
महोत्सव मनाएँगे
और पूरे माह हर रोज एक नया
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आप भी आएँ
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तो देर किस बात की
अपनी रचनाएँ प्रकाशित करना शुरू करें
कहीं देर न हो जाय
और ग्रीष्म का यह उत्सव
आपकी रचना के बिना ही गुजर जाए
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गीतों में-

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अनूप अशेष

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आभा सक्सेना दूनवी

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कल्पना मनोरमा

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कल्पना रामानी

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कुमार रवीन्द्र

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कृष्ण भारतीय

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गरिमा सक्सेना

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चन्द्रप्रकाश पाण्डे

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देवव्रत जोशी

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देवेन्द्र सफल

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प्रदीप शुक्ल

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बसंत कुमार शर्मा

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ब्रजनाथ श्रीवास्तव

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मधु शुक्ला

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मलखान सिंह सिसौदिया

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रंजना गुप्ता

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राजेन्द्र वर्मा

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राहुल शिवाय

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शशिकांत गीते

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शिवानंद सिंह सहयोगी

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शीलेन्द्र सिंह चौहान

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सीमा अग्रवाल

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सुरेन्द्रपाल वैद्य

छंदमुक्त में-

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अजित कुमार

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अश्विन गांधी

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उर्मिला शुक्ल

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संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी