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२. १२. २००८

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बैठा हूँ इस केन किनारे

  बैठा हूँ इस केन किनारे!

दोनों हाथों में रेती है,
नीचे, अगल-बगल रेती है
होड़ राज्य-श्री से लेती है
मोद मुझे रेती देती है।

रेती पर ही पाँव पसारे
बैठा हूँ इस केन किनारे

धीरे-धीरे जल बहता है
सुख की मृदु थपकी लहता है
बड़ी मधुर कविता कहता है
नभ जिस पर बिंबित रहता है

मै भी उस पर तन-मन वारे
बैठा हूँ इस केन किनारे

प्रकृति-प्रिया की माँग चमकती
चटुल मछलियाँ उछल चमकतीं
बगुलों की प्रिय पात चमकती
चाँदी जैसी रेत दमकती

मैं भी उज्ज्वल भाग्य निखारे
बैठा हूँ इस केन किनारे!

- केदारनाथ अग्रवाल

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हास्य व्यंग्य में-
डॉ. गणेशदत्त सारस्वत की कुंडलियाँ

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