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सुदर्शन रत्नाकर

शिक्षा:
एम. ए. (हिंदी),बी.एड.

कार्यक्षेत्र:
केन्द्रीय विद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षक (सेवानिवृत्त), स्वतंत्रलेखन।
प्रकाशित पुस्तकें : (काव्य-संग्रह) युग बदल रहा है, आसमान मेरा।
(कहानी-संग्रह) फूलों की सुगंध, दोष किसका था, बस अब और नहीं, नहीं, यह नहीं होगा मैंने क्या बुरा किया है
(उपन्यास) यादों के झरोखे, क्या वृंदा लौट पाई।

संकलित:
रंग-तरंग, कथा-यात्रा सात, बीसवीं शताब्दी, मेहमान, मिन्नी कहानियाँ, विश्व लघुकथा कोश।

पुरस्कार:
हरियाणा साहित्य अकादमी- दोष किसका था (1999 ), मृग तृष्णा (कहानी-1994)। संबंधों का अहसास (कहानी-1999)  केन्द्रीय विद्यालय संगठन द्वारा प्रोत्साहन पुरस्कार(राष्ट्रीय स्तर) कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा एम. फिल. -शोध कार्य संपन्न, पी-एच.डी. जारी।

संपर्क- sratnakar@essar.com

 

  बदलाव

(उफ़नती लहरों की ध्वनि)
मैं सागर के किनारे
सिकता पर बैठी हूँ
उफनती लहरों के जलकण
मुझे भिगो रहे हैं,
मेरे शरीर को ही नहीं
भीतर
मेरे अन्त: स्थल को भी।
मैं भीगी-भीगी
तरल हुई जा रही हूँ।

(भीड़ के चलने की आवाज़)
दूर मेरे सामने
भीड़ का एक रेला है
जो क्षण भर में
बदलता जा रहा है
मेरी आँखों में समाये
उस सपने की तरह
जो मैं रोज़ देखती हूँ
हर सुबह
हर शाम।

(हल्का मधुर संगीत, छोटी बच्ची का स्वर)
मेरा एक घर है,
आँगन है
आँगन में एक पेड़ है
जिसकी शाखाओं पर झूलती मैं
आसमान को छूने का
असफल प्रयास करती हूँ
मैं आसमान तो नहीं छू पाती
पर शाखाओं पर कूदती- फाँदती हूँ
परिन्दों की तरह।
उन शाखाओं को छूती हूँ
और मेरा मन भीतर तक
पुलकित हो जाता है -
मैं कन्धे पर बैठी
बस्ती में लगे मेले में
जा रही हूँ।
रंग-बिरंगे खिलौनों से
मेरे हाथ भरे हैं।
मैं कंधे से उतरती नहीं
कूदती हूँ
और
मेरे सारे खिलौने टूट जाते हैं।

(वयस्क का स्वर, कुछ भीगा हुआ-सा)
बचपन में, अनजाने में टूटे हुए
उन खिलौनों की तरह
आज
मेरे सपने टूटते हैं
जिन्हें मैं सजाती हूँ
हर सुबह
हर शाम।
उस स्नेहिल कंधे से भी
मेरा साथ छूट जाता है
वे कंधे
अब कितने निढ़ाल
कितने बेबस
कितने लाचार हो गए हैं।
उस बेबसी को मैंने
अपनी आँखों से देखा है
और उस बेबसी का अहसास
मुझे भीतर तक कचोट जाता है।
उन वीरान आँखों में
मौत के साये मुझे अब भी
कँपा जाते हैं।

(दृश्य परिवर्तन, समुद्र की लहरों की ध्वनि)
मेरे सामने से
भीड़ का एक और रेला
आ रहा है।
कितने-कितने बदले हुए लोग हैं!
अब मैं रोज मेला देखती हूँ-
भागते हुए इन लोगों का
जिनके चेहरों पर
मेले में जाने की प्रसन्नता नहीं
गहराता अवसाद है।
उनकी सूनी आँखो में तैरते,
कल के सपने हैं,
जिन्हें वे केवल देखते आ रहे हैं।
भोगते नहीं।
कल की बस्तियाँ
आज कितनी बदल गई हैं!
उनका फैलाव अपनी सीमाओं को
लाँघ गया है,
लेकिन घर सिकुड़ गए हैं।
मैं अपने आँगन में
पेड़ नहीं लगा सकती
बच्चों को झूला नहीं झुला सकती
उन्हें कंन्धों पर बिठा कर
मेला भी नहीं दिखा सकती
क्योंकि ऐसा करना शिष्टाचार के
विरुद्ध है।
लेकिन मैं ऐसा क्यों नहीं सोचती-
कि कल जब मेरे कन्धे
निढाल हो जाएँगे

मेरी बेबसी का किसी को अहसास कैसे होगा?
क्यों होगा?

(भगदड़ की आवाज़, थका स्वर)
कितना ठहरा हुआ है
यह सफ़र!
एक ही पगडंडी से सुबह शाम
गुज़रता यह खामोश सफ़र
जाने कब तक चलता जाएगा।
कब तक यों ही ठहरा-ठहरा
रुका-रुका-सा जीवन
जीते जाएँगे सब,
जिसमें जीने की केवल मजबूरी है।
रेंगते कीड़ो की तरह
जाने कब कुचल जाएँ
कब प्रदूषण का
शिकार हो जाएँ।
कब अट्टालिकाओं के नीचे दब जाएँ
कब जाड़े की ठिठुरती रातों में
जम जाएँ
कुछ पता नहीं।

(प्रश्नाकुल स्वर)
यह बदलती सभ्यता का खण्डित युग
क्या मेरे बीते दिनों को
वापिस ले आएगा?
जहाँ मैं अपने आँगन में
पेड़ लगा सकूँ
ताकि आने वाली पीढ़ी उस पर
झूला झूल सके।
जहाँ भीड़ के रेले न हों,
हँसते-मुस्कुराते चेहरे हों,
जो केवल सपने ही न देखें
सुनहरे भविष्य का आलोक हो
उनकी आँखों में

(आशा-भरा स्वर)
तब सागर की इन
उफनती, थिरकती लहरों का संगीत
इनका भीगापन
मेरे अन्त: स्तल को तरल करके
पिघलाएगा नहीं
मेरे मन को भीतर तक
आह्लाद में डुबा देगा।

२२ दिसंबर २००८

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