अनुभूति
में स्वप्न मंजूषा
शैल 'अदा' की रचनाएँ-
छंदमुक्त
में-
गुमशुदा
पुरुषोत्तम
हिन्दुत्व
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पुरुषोत्तम
त्याग दिया वैदेही को
और जंगल में भिजवाया
एक अधम धोबी की कही पर
सीता को वन भटकाया।
उस दुख की क्या सीमा होगी
जो जानकी ने पाया,
कितनी जल्दी भूल गये तुम
उसने साथ निभाया।
जब तुम कैकेयी को खटक रहे थे,
दर दर ठोकर खाकर
वन वन भटक रहे थे।
अरे, कौन रोकता उसको,
वह रह सकती थी राजभवन में।
इन्कार किया था उसने,
तभी तो थी वो अशोकवन में।
कैसे पुरुषोत्तम हो तुम?
क्या साथ निभाया तुमने?
जब निभाने की बारी आई
तब मुँह छुपाया तुमने?
छोड़ना ही था सीता को
तो खुद छोड़ कर आते,
अपने मन की उलझन
एक बार तो उसे बताते।
तुम क्या जानो कितना विशाल
हृदय हे स्त्री जाति का।
समझ जाती उलझन सीता
अपने प्राणप्रिय पति की।
चरणों से ही सही, तुमने
अहिल्या का स्पर्श किया था।
पर–स्त्री थी अहिल्या,
क्या यह अन्याय नहीं था?
तुम स्पर्श करो, तो वो उद्धार कहलाता है
कोई और स्पर्श करे, तो स्पर्शित
अग्नि परीक्षा पाता है।
छल से सीता को छोड़ कर
पुरूष बने इतराते हो।
भगवान जाने कैसे तुम
"पुरुषोत्तम" कहलाते हो!
एक ही प्रार्थना है प्रभु,
तुम कलियुग में मत आना।
गली गली में रावण हैं,
मुश्किल है सीता को बचाना।
वन उपवन भी नही मिलेंगे,
कहाँ छोड़ कर आओगे?
अहिल्याओं का उद्धार करोगे,
और सीताओं को पाषाण बनाओगे?
२० जनवरी
२००२ |