अनुभूति में
शांतनु गोयल की रचनाएँ
मुगालते
साक्षात्कार
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मुगालते
गढ़ो, बुनो, इसी स्वर्ग
में, इसी नरक में,
रचो, बसो, इसी धरा पर, इसी फलक में,
इसी झूठ में जलने हैं, आशाओं के बीज निराले,
इसी झूठ में फलने हैं, इच्छाओं के फूल निराले,
यही झूठ ही सत्य रहा है,
यही झूठ ही तत्व रहा है।
धूप छाँव के खेल में, दुःख
का लेशमात्र भी कल्पित है,
शाम सहर के मेल में, सुख का अंशमात्र भी मंचित है,
विधि का विधान यही, निधि का निर्माण यही,
संकल्पों का पतन यही, विचारों का मरण यहीं,
हर सुबह नई जिजीविषा का उद्गम यहीं,
हर रात पुरानी आस्था को नमन यहीं,
हाँ, तमाम गड़बड़झाले
में कुछ था,
सुकून देता था, करार देता था,
दिन कुछ ऐसे पलटे,
लकीरें ऐसी सिमटी,
निचोड़ गई मेरी चाहत मुझे,
झिंझोड़ गई मेरी लगन मुझे
हाँ, सब कुछ भुला देने के
वादे करके भी, इरादे करके भी,
इक झलक उसकी, तार झनझना जाती है
इक हँसी उसकी, रोएँ सनसना जाती है
हाल-ए-दिल अजीब हो रखा है,
उसको भुलाने की ज़िद में
खुद को ही भुला रखा है
9
अप्रैल
2007
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