अनुभूति में
संजय कुमार पाठक की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
तुम्हारी वर्षगाँठ पर
पत्थर और मैं
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पत्थर और मैं
मेरी नज़र बरबस उस पत्थर पर पड़ी
देखा मैंने उसे भावावेश में आकर
वह मूक था।
मुझे लगा
जैसे वह कुछ कहना चाह रहा है
कि ठोकरें खाना ही
उसके भाग्य में बदा है-
उसकी नियति है।
मैं मन ही मन बुदबुदाया
दुखी तुम्हें नहीं बल्कि मुझे होना चाहिए
क्योंकि तुममें- तुममें ठोकरें खाकर
कभी किसी मंदिर में पूजे जाने की
पर्याप्त संभावनाएँ छिपी हैं
जबकि
मैं मानव- मैं तो केवल ठोकरें ही खाता रहता हूँ।
९ अगस्त २००६ |