मुक्तक
१
सरहदें जख्म सहती हैं।
हर रोज खूँ की धारा बहती है।
जरा सोच समझ रे मूढ प्राणी।
क्या इंसानियत यही कहती है।
२
यहाँ वहाँ जिधर भी देखूँ
खूनी खंजर आँखों में चुभता है।
देख आज के इंसाँ की हालत
दिल भीतर ही भीतर जलता है।
३
अंगे्रजों के काल में।
आँसू बहाती थी हिन्दी।
आज हिन्द आजाद है
फिर भी हिन्दी की हिन्दी।
४
चहुं दिशा संग उन्मुक्त गगन ने
आजाद हिन्द का गुणगान किया।
अर्पित है यह मुक्तक उनको।
करगिल में जिन्होंने बलिदान किया।
२४ मार्च २००४
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