अनुभूति में पवन कुमार शाक्य
की रचनाएँ-
मनुष्य की मनुष्यता
नव यौवन
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मनुष्य की
मनुष्यता
बड़े इत्मीनान से वो कमरे को हीटर से गरमा लेते हैं,
और मज़े से अपने आपको रजाई में छुपा लेते हैं,
मगर मुझे क्या हुआ जो सड़कों पर निकल आया,
कोहरा है विकट, सर्दी है कड़क,
दाँत मुँह के अंदर हैं, फिर भी किटकिटा दिया,
हाथ घुस गए दोनों अपनी पड़ोसी बगलों में,
ठंडी तेज़–तर्रार हवायें चुभती आँखों में,
मैंने सब कपड़े पहने हैं फिर भी ये हाल है,
मगर वो कैसे रहते होंगे,
जो सड़कों पर सोते निढाल हैं,
सोचता यही दो कदम आगे चला,
कि धुँधली–सी काली छाया को,
हलवाई की भट्टी पर देखा,
दुकान बंद थी, भट्टी भी बंद थी,
मगर सर्दी के आगे,
एक बूढ़े की आत्मा कुंद थी,
पास जाकर के देखा,
चंद चीथड़ों में उलझी लिपटी,
उस आत्मा की साँस भी मंद थी,
मैं हड़बड़ा गया,
सर से लेकर पाँव तक पसीने से नहा गया,
सोचा कि अब क्या हो?
क्या मनुष्य की मनुष्यता की यही सजा हो?
हाँ, चंद मनुष्यों की मनुष्यता के शिकार हैं हम,
तभी तो सज़ाएँ भुगत रहे हैं हम,
देश की असंख्य जनसंख्या का पालन कैसे करें हम?
औलाद ईश्वर की देन मानते हैं हम,
अथवा पुत्र के बिना उद्धार नहीं समझते हैं हम,
मित्रो, ज़रूरत है आज शिक्षा के विस्तार की,
जीवन के विकास की, और व्यवस्था के सुधार की,
शहर की तमाम सड़कों पर दरिद्र्रता फैली पड़ी है,
न खाने को रोटी, न पहनने को कपड़ा,
और न रहने को झोपड़ी है,
फिर भी शादी करके बच्चे बनाने की सबको पड़ी है,
तभी तो मानवता सड़कों पर रोती खड़ी है,
अपनी ही धुन में रहने की सबको पड़ी है, मगर,
निर्दोषों की पीड़ा की किसको पड़ी है।
२४ मार्च २००६ |