अनुभूति में
मृदुला जैन की रचनाएँ—
चाह एक
दृष्टि
बिखरती आस्था
लम्हा-लम्हा ज़िंदगी
भारत माता के प्रति
सपने |
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दृष्टि
सखी ये आँखें अब
न रूप देखती हैं
न रंग देखती हैं
न आदमी ही देखती हैं
आदमी के भीतर
वह आदमी देखती हैं
जो चलता है
अपनी ही मतवाली चाल पर
गाता है जीवन की
मधुर ताल पर
रोता है तो बस
दुखियों के हाल पर।
और सखी ये आँखें अब
न धाम देखती हैं
न काम देखती हैं
न नाम ही देखती हैं
नाम के भीतर
उस चैतन्य परमात्म को देखती हैं
जो महकता है जीवन के हरेक द्वार पर
चहकता है मानव के हरेक श्रृंगार पर
विहंसता है बालक की मधुर मुस्कान पर
09 फरवरी 2007
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