अनुभूति में
मृदुला जैन की रचनाएँ—
चाह एक
दृष्टि
बिखरती आस्था
लम्हा-लम्हा ज़िंदगी
भारत माता के प्रति
सपने |
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बिखरती आस्था
आँसू जज़्ब होते नहीं अब इन
आँखों में बह जाते हैं।
आह रुकती ही नहीं इन होंठों से निकल जाती है
तीर्थयात्रा पर जाती हुई एक बस दुर्घटनाग्रस्त हो गई
पढ़कर माथा झुकता ही नहीं इन तीर्थों पर उठ जाता है।
मंदिर के प्रांगण में सैकड़ों लोग
आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो गए
सुनकर आस्था टिकती ही नहीं इन मंदिरों पर बिखर जाती है
चीखती हूँ चिल्लाती हूँ भगवान तू नहीं है
कहीं नहीं है
होता तो ये ना होता।
भीतर से एक धीमी आवाज़ आती है
मैं हूँ मैं हूँ ना
तेरे हृदय के निश्छल प्रेम में करुणा में और सत्य में
प्रगट होने दे मुझे मेरे भव्य रूप में।
09 फरवरी 2007
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