जिस मोड़ से गुजरो
ख़्वाबों में आशाओं के रंग बिखरने दो
खुले नयनों में आकाश सिमटने दो
बना ली बहुत सिमाएँ चारों ओर
कल्पनाओं को उन्मुक्त उड़ान अब भरने दो।।
निराशा हताशा की चिता सजने दो
तनहाई को मौन संगीत से भरने दो
अद्भुत सौंदर्य दिखेगा हर तरफ़
इक बार अंदर की गागर तो छलकने दो।।
क्यों ज़िंदगी को अपने से बिछड़ने देते हो
बाहरी चकाचौंध में पागल बन भटकने देते हो
भीतर ही हैं खुली हुई मधुशाला
क्यों नहीं इसी में खुद को बहकने देते हो।।
खुद से खुद को ज़रा बात करने दो
सुप्त ऊर्जा को ज़रा वात बन बहाने दो
मत रोको अपने बचपन को
खुल के हँसों ज़रा उत्पात होने दो।।
फरारी से द्रुत मन के सवार बनो
अट्टालिका में रहकर भी हिम का आकार बनो
जीवन को कर लो इतना उन्नत तेजस्वित
जिस मोड़ से गुजरो उसी की पहचान बनो।।
24 दिसंबर 2007
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