अनुभूति में कंचन
मेहता की रचनाएँ—
छंदमुक्त में—
बरखा बहार
सावन की बूँदें |
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सावन की बूँदें
सावन की बूँदों से, मेरा शहर है धुला–धुला सा
गीली गलियों में तंग–तंग
और
भीगी सड़कों पर खुला–खुला सा।
खुले आसमां से उतरा है हवाओं का मौसम
जाएगा ये सुदूर क्षितिज तक,
छितरा कर थोड़ी ठंडी बूँदों को
कंपन देगा अंतर्मन तक।
टप–टप गिरते पानी में हर पत्ता है खिला–खिला सा।
सावन की बूँदों से, मेरा शहर है धुला–धुला सा।
छत बन गई है ताल–तलैया या तालाब
तन–मन को भिगोएँ ये ठंडी फुहारें,
उमड़े हैं ज़ोरों से काले घने बादल
चारों तरफ़ जल धाराओं के नज़ारे।
सूरज है हल्का गुलाबी, पीछे कहीं छुपा–छुपा सा।
सावन की बूँदों से, मेरा शहर है धुला–धुला सा।
मिट्टी की खुशबू ने भर दी हैं साँसे
आँखों में है कॉफ़ी का सुनहरा धुआँ,
बालकनी के लंबे झूले से
दिखता है नीलाभ अनछुआ।
आसमानी बाँहें फैलाए उतरा है अंबर झुका–झुका सा।
सावन की बूँदों से मेरा शहर है धुला–धुला सा।
९ अक्तूबर २००५
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