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आवाहन
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
राह रोके हिमशिखर जो पिघल गंगा जल बनेगा
कामनाओं का मरुस्थल, तृप्ति का नन्दन बनेगा
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
स्वेद की हर बूँद मोती बनाने दो ज़रा
धन्य विप्लव गूँथ कर जयहार तेरा
दीपमालाएँ बनें अब बिजलियाँ,
मरुत उच्छ्वासों विजय भेरी बजाएँ,
भृत्य हो व्यवधान, नित नये गीत गायें
क्या कहाँ आकाश है, पाताल क्या?
छोर दोनों के मिलाने दो ज़रा
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
शर पराक्रम और हो संकल्प प्रत्यंचा तुम्हारी
लक्ष्य करते होड़ हों पहले लगे बाजी हमारी,
सारथी सूरज बने और यश ध्वजा,
चाँद तारों को उठाने दो ज़रा
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
बीज नन्हा बट बने फूले फले
दस दिशाएँ चूम मिल नभ के गले
श्रान्त विह्वल पथिक को इसके तले,
स्वेद माथे का सुखाने दो ज़रा
आज देखे जग मेरी ये कृति अनूठी
गर्व के मेले लगाने दो ज़रा
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
थामने दो ज्वार को पतवार अब
डूब सब मझधार जाने दो ज़रा
लेखनी विधि हाथ से लेकार स्वयँ
रेख माथे पे बनाने दो ज़रा
आज विधि से छीनकर उसके लिए
अमरत्व का वरदान लाने दो ज़रा
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
होलिका की गोद कल्मष, भावना चुप, न्याय परवश
भक्ति अनहद नाद-सी,अविचलित प्रहलाद-सी
नियती को धधकते अंगार लाने दो ज़रा।।
वह्नि बन शृंगार जाने दो ज़रा।।
विगत कुछ भारी रहा है, क्षोभ दुःख तारी रहा है
यातना की कैद से बाहर निकल अब नियती को खिलखिलाने दो ज़रा।।
सूर्य सा खुद को तपाने दो ज़रा
२१ जुलाई २००८
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