अनुभूति में
अवतंस कुमार
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पैबन्द
रात की तनहाई में
ख़ामोशी की एक पतली सी चादर में लिपटी
ठण्ड से सिकुड़ी
एक बेजान-सी पड़ी लाश।
बर्फ़ सी सर्द देह।
जिसका सबकुछ निचोड़ डाला गया था,
जिसका सबकुछ छिन चुका था।
वैसे छीनने को बचा भी क्या था...
एक नन्ही-सी मासूम जान?
जगह-जगह से पिचकी हुई कटोरी में चिपके
भात के कुछेक दाने?
तार-तार हुई मटमैली धोती?
धूल से सने खिचड़ी बाल?
हल के जुए से पड़े कन्धे पर निशान?
पीठ की हमसफ़र बनी पेट की धधकती ज्वाला?
बाजरे का सत्तू?
तंबाकू की टॉनिक और बीड़ी के धुँए का इंधन?
एक तरफ़ फ़ुटपाथ पर पड़ी यह लाश है
और दूसरी तरफ़ यमराज सद्रिश काली सड़कों पर दौड़तीं
लाल-पीली बत्तियों वाली टोयोटा, मर्सेडीज़, और बी.एम.डब्ल्यू कारें।
सामने के पंच-सितारा होटेल के डिस्कोथेक में
ऑर्केस्ट्रा की चीखती धुनों पर
पारदर्शी शीशों के पीछे नशे में धुत्त नाचते जोड़े।
म्युनिसपल्टी की एक कूड़ा उठाने वाली गाड़ी
उसे 'साफ़' करने की कोशिश कर रही है
जिसने नए वर्ष के जश्न की जूठन खाने की आशा में
उस पंच-सितारा होटेल की सुंदरता में
पैबन्द लगाने की जुर्रत की थी।
३१ मार्च २००८ |