दस्तक
काश उसने इस दिल पर दस्तक ना दी
होती !
तड़पते हुए पंछी को धूप में छाया ना दी होती !!
यूँ हो जाती खाक ये ज़िन्दगी
गर बुझती हुई आग को हवा ना दी होती !
अब वो हमसे कुछ इस तरह रूठे हैं
लगते संगीत के सब साज़ झूठे हैं !
लगती सारी दुनिया जैसे पत्थर की बनी है
रगों में बहता खून भी लगता अब पानी है !
मैंने भी तो उस दूर गगन को पाने की कोशिश की थी
वर्ना पहले कहाँ -
इस दिल में बेचैनी और आँखों में नामी थी !
क्यों दूरी की वजह लगती एक पहेली है
अब तो तन्हाई ही मेरी सखी सहेली है !
मन की अब वो मेरे साथ नहीं
मगर चाहत दूरियों की मोहताज़ नहीं होती !
बिखरे हों जैसे आज माला के सब मोती
काश उसने इस दिल पर दस्तक ना दी होती !!
११ जून २०१२
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