अनुभूति में अमित प्रभाकर की
रचनाएँ
कविताओं में
ऊँघ रहा यह शहर
बुझा बुझा
मुसकुरा लेना
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ऊँघ
रहा ये शहर
हल्की-हल्की रूत में
ऊँघ रहा ये शहर
छुट्टी के दिन अलसाई अगहनी दोपहर
हवाओं की अल्हड़ सदाएँ हो गई हैं तेज़
बस धूल ही धूल उड़ रही है बाज़ार में
आज तैर रहे हैं तराने धूप में बेसबब
चल रही गाड़ियाँ भी सड़कों पे रफ़्तार में
हसीनों का झुंड खिलखिलाता वो चला
क्या जाने कौन है किस के शिकार में
मैं कहूँ मन से, तक ले इनको रुक कर
खींच मुझे कहीं और ले जाती नज़र
हल्की-हल्की...
ये भवन जो आज नत, चुपचाप खड़ा है
इस सड़क के आखिरी, सुनसान मोड़ पर
आकार देख, कौन कहेगा उद्योग इसको
कल तक इतने बड़े होते थे अपने घर
छोटे-छोटे चौखानों में लगाकर कतार
इसकी रगों में उग आए हैं कई दफ्तर
कल फिर इसी कशमकश में बैठेंगे कर्मी
आज घूम रहे होंगे कहीं, मस्त सड़कों पर
हल्की-हल्की…
७ जनवरी २००८
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