अनुभूति में अमित प्रभाकर की
रचनाएँ
कविताओं में
ऊँघ रहा यह शहर
बुझा बुझा
मुसकुरा लेना
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बुझा-बुझा
बस मैं दिन भर बुझा-बुझा सा था
जो तुम आज आई न दफ़्तर
मुझको छोड़कर, था बाकी सब कुछ वैसा ही
वही मस्त हवाएँ, मुसकुराता सूरज भी वही
उसी तरह आधे बंद थे संस्था के द्वार
वहीं पास थे घूम रहे चौकस पहरेदार
आने जाने वाली गाड़ियों की जाँच भी
ठीक उसी प्रकार हो रही थी आज भी
मेरे कार्यसदन के ठीक बाहर घास पर
अब तक लगी थी ओस की परतभर
कुर्सी और दीवार के बीच की फाँक में
सरदी का सूरज था भागने की ताक में
इस शरद में भी मेरी खिड़की का दर
हर रोज़ की तरह अधखुला-सा था
उसी समय हुआ चाय का नियम आज
आ गया था मैं भी छोड़कर सब काज
सब लोग जमा हुए आज उसी स्थान
मित्रों के छोटे घेरे, कर रहे थे चायपान
मैंने आज भी, दोस्तों की बातों से परे
तुम्हारी राह पर टिकाकर अपनी नज़रें
की फिर से प्रतीक्षा, पर तुम न मिली
आ गई थी तुम्हारी मित्रों की मंडली
तुम्हारे बिना उस मंडली का दायरा
आज थोड़ा, एकदम थोड़ा, छोटा-सा था
कारीगर अपने-अपने पुर्ज़े
कस रहे थे
उसी कड़ाई से उन पर उपरि बरस रहे थे
यंत्रों की गड़गड़ाहट पूर्ववत जारी थी
इस बार लेकिन, मेरे मित्रों की बारी थी
देख मेरी आकुलता, तुम्हें निहारने की
छेड़ रहे थे बार-बार मेरे दोस्त सभी
किसी को भी तुम्हारे आज न आने का
मगर न कोई ग़म था, न ही कोई पता
बस मेरी निगाहें घूमी थी आकुल चहुँदिश
भीड़ में तुम्हें ढूँढने की मेरी हर कोशिश
हो गई थी बेकार, और मैं अनमना-सा था
७ जनवरी २००८
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