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अनुभूति में अमित अग्रवाल की
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सुख की कोठरी

एक समय था,
जब थी चारों ओर
हरियाली ही हरियाली
दुख की कोठरी हुआ करती थी
एकदम खाली।

खुशी और प्रेम का माहौल था,
रंगीन थी सारी दुनिया
फैली हुई थी सभी
जगह केवल खुशियाँ ही खुशियाँ।
तभी अचानक आँख खुली,
पता चला कि देख रहे थे एक सपना
अकेले हैं सभी
कोई नहीं है हमारा अपना।

हड़बड़ा कर उठ बैठे
देखा, अपनी पोटली उठाकर
भागा जा रहा है सुख
छोड़कर अपनी कोठरी में केवल,
दुख ही दुख।
बहुत कोशिश की,
सब कुछ लेकर सुख के पीछे भागे
नहीं देखा उसने मुड़कर
चला गया वो तो तोड़ कच्चे धागे।

बुझे नहीं अभी आशाओं के दिए
बैठे हैं चुपचाप उम्मीदों को लिए,
आसमान ताकते, धूल फांकते,
कोई नहीं है हमारे वास्ते।
समझे!!!

सब कुछ एक धोखा था,
अब दुखी होने से कुछ नहीं होगा
जो है जैसा है, उसी में सुख को
ढूँढना होगा।

९ दिसंबर २००५

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