अनुभूति में
आलोक शंकर
की रचनाएँ —
आग़ाज़
चार छोटी कविताएँ
भीष्म
भीष्म-प्रतिज्ञा
परछाइयाँ
हाशिये पर ज़िंदगी |
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चार छोटी
कविताएँ
भीष्म
आदित्यों का तेज़, घनी छाया जिसको करता है
जिसकी धनु की प्रत्यंचा से निखिल भुवन डरता है
देवों का देवत्व, नमन जिस नरता को करता है
कालजयी, उस आदि पुरुष को मनुज कौन कहता है?
नहीं मनुज तुम भीष्म, मनुजता की तुम नव आशा हो
निष्ठा, भक्ति, प्रतिज्ञा-पालन की कोई भाषा हो।
भीष्म - प्रतिज्ञा
दिनकर अपना तेज़ त्याग, शीतलता धारण कर लें
या शशि अपनी धवल ज्योति सारे पिंडों से हर लें,
अग्नि त्याग दे पवित्रता, गंगा त्यागे निज-धारा
अमृत कलश विष बरसाए, म्रृत हो जाए जग सारा।
स्वर्ग धरातल में जाए, किन्नर दानव हो जाएँ
या अपनें हि प्रिय मधुकर को कुसुम मारकर खाएँ
मही डोल जाए लेकिन पुरुषार्थ नहीं डोलेगा
टूट जाय अम्बर लेकिन यह वचन नहीं टूटेगा,
मैं अष्टम गांगेय आज यह भीषण प्रण करता हूँ,
ब्रह्मचर्य पालन करने का पावन व्रत धरता हूँ॥
परछाइयाँ
काँच की परछाइयों में कुछ नई तो बात है
रोशनी से टूटती तो हैं, मगर निःशब्द हैं
आहटों से खेलकर तो बात कुछ बनती नहीं,
ख्वाहिशों को गूँथकर बनता कहीं कुछ राग हो,
कौन कहता है हवा पर पाँव रख सकते नहीं,
आसमाँ छूने का ये शायद कोई अंदाज़ हो।
कोई पर्दा रोशनी को रोक तो सकता नहीं,
नींद से फिर जाग लेने में बड़ी क्या बात है,
देखना, पर जागने से, ना गिरें परछाइयाँ
गूँजती परछाइयों की दूर तक आवाज़ है
हाशिये पर ज़िंदगी
हमें न सागरों-सी ख्वाहिशें उठानी हैं
कि एक बूँद से हलक अभी भी ज़िंदा है
किसी ख़याल से लहू कभी थमा होगा
झलक से आँख में लमहा कोई जमा होगा
कि काश उम्र तलक हम उसी को जी पाते
समय की तेज़-तेज़ आँधियों में सी पाते
तो ज़िंदगी न यों ही बेवजह पड़ी होती
खुले लिहाफ़ की रेखा ज़रा बड़ी होती
कई कहानियों-सी हाशिये पर सिमटी हैं
तभी बेज़ान से ये हाशिये भी ज़िंदा हैं
9 जनवरी 2007
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