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कविता
मिट्टी की महिमा
युद्ध

 

मिट्टी महिमा

आकार ले रहे हैं सपने 
धीरे धीरे 
सधे हुए हाथों में सुरक्षित है 
रौंदी हुई मिट्टी का भविष्य
बोलता है 
सृजन की भाषा
कुम्हार के माथे का 
एक एक स्वेद कण
अनुभवी रेखाएँ गहराती हैं 
बच्चों की उम्मीदें 
एक एक कर खिलौनों की शक्ल में 
आती हैं सामने 
कबीर की भाषा 
पुरानी पड़ गयी है 
जान गया है 
कामा कुम्हार
इतनी सी बात वर्षों बाद
आई है उसे समझ
कि मिट्टी और कुम्हार का 
क्या रिश्ता है।
कि मिट्टी रौदती नहीं किसी को 
प्रतिहिंसा के लिये 
मिट्टी से उभरता है अनवरत
नित नूतन संसार 
कि अँगुलियाँ बदल जाती हैं सिर्फ
धड़कन वही रहती है 
मिट्टी की
कि मिट्टी आमंत्रित करती है 
मीठी छेड़ छाड़ के लिये 
कि मिट्टी 
कंधे पर सवार हो जाती है 
अठखेलियाँ करती 
हठी बालक की तरह
अँगुली थामे हाट बाज़ार घूमती
कि मिट्टी की ममता
बराबर ताने रहती है 
अपना प्रगाढ़ आँचल  
ऋतुओं की सरहदों पर 
टिमटिमाती लालटेन लिये
कि मन्नतें माँगती है मिट्टी
सुरक्षित वापसी के लिये 
गहन अंधकार भरी
ठंडी रातों में 
कि लौटे हुए जूतों के साथ
भर देती है मिट्टी
घर के सूनेपन को।
कि सम्पूर्ण स्निग्धता 
लिपट जाती है 
ठिठुरे जिस्मों के गिर्द 
गर्माहट की तरह 
गाती है मिट्टी
अलाव के आसपास
पहचान कराती संबंधों की।

१६ अप्रैल २००१

 

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