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छंदमुक्त में-
कविता
मिट्टी की महिमा
युद्ध

 

कविता

अधिकांश प्रगतिशील मित्र
इसी गली में रहते थे
एक से एक धारदार बातें कहते थे
सुनकर आसमान थरथराने लगे
धरती झूम-झूमकर गाने लगे
देश में एक नया माहौल छाने लगे
वे नहीं मानते थे
कोई धर्म या मजहब
जात पात का भी नहीं था झमेला
क्रांति करने का माद्दा रखता था
उनमें से हर कोई अकेला
क्रांति
माने अपने लिए एक सुविधाजनक जीवन
एक अदद पुख्ता आर्थिक आधार
हो सके तो थोड़ा प्यार-वार
फुर्सत में क्रांति का कार्य-व्यापार
सभी जनों ने चाहा
किसान-मजदूर का संग
साथ कइयों के होने पर भी
उन्हीं के हित की कोई बात
ये बातें अजीब नशा देती थीं
अफसोस मात्र इतना इतना कि
आंदोलन बतरस होकर रह गया
सारा जोश
इंडिया गेट जंतर-मंतर के रास्ते होकर
अनंत दिशाओं में बह गया
चुनाव में मुँह की खाने वाले
अपनी जमानत जब्त कराने वाले
आदतन अब भी गुनगुना लेते हैं
इंकलाब जिंदाबाद?
जिसकी क्षीण प्रतिध्वनिया
शायद उन तक भी नहीं पहुँचतीं

१६ अप्रैल २००१

 

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