कोई उत्सव नहीं मना
युग बीते
मेरे आँगन में
कोई उत्सव नहीं मना।
मौसम जाने कितने आए
पर निकले वे सभी पराए
युग युग बीते
कोई मौसम
हो न सका मेरा अपना।
टूट रहे हैं अक्षर अक्षर
अर्थों में है रहा शून्य भर
छंद साधते
युग बीते पर
गीत एक पूरा न बना।
सज़ा मिली पर अवधि अनिश्चित
साँस साँस में पीड़ा संचित
दिन पर दिन
होता जाता है
क्रूर और एकांत घना।
१५ सितंबर २००८
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