तुलसी सिसक रही
आँगन में तुलसी सिसक रही
आँगन में
नागफ़नी पूजी जाती है
स्वयं मनुजता आज मनुज को
शीश झुकाकर सकुचाती है।
अंधे नौकाएँ खेते हैं
दुर्दिन ही हहराती सरिता
पैने व्यंग शिथिल लगते हैं
थकी और हारी-सी कविता
इंसानियत कहाँ ढूँढ़े हम
केवल भीड़ बढ़ी जाती है।
दुष्कर्मों की खुली खिड़कियाँ
नैतिकता के द्वार बंद है
नहीं समर्पण का प्रकाश है
संकल्पों के दीप मंद है
चिंता की मकड़ी सपनों की
चादर नित बुनती जाती है।
कुछ दलाल दल-बदलू अपनी
निष्ठा का अभिनय करते हैं
ज़हरीले दरके घट में वे
राजनीति का जल भरते हैं
षडयंत्रों की कटही क्षण-क्षण
जीवन को ढकती जाती है।
निर्णय की गठरी शंका के
कंधे पर नित लदी हुई है
खड़ी हुई निर्वसन सभ्यता
संस्कृति अब बेमोल हुई है
आशीषों के कंठ सूखते
मिथ्या नित बढ़ती जाती है।
२५ मई २००९ |