रिश्वत खोर हुआ है
माली द्वार पर हैं लोभी
प्रहरी
रास भी है लगती बहरी
कर्म रोगी होकर चलते
सभी के मन में भ्रम पलते
निरपराध भय से हैं आकुल
मूल्यहीन बंधन।
लूटते हैं भ्रष्टाचारी
फिर रहे निर्भय व्यभिचारी
दलों की दलदल खूब बढ़ी
व्यथा जनता के शीश चढ़ी
हर डगाल पर लिपटे विषघर
आहत चंदन-वन।
रोशनी डरी-डरी लगती
विवशता जन-मन में पलती
पसीना का होता अपमान
कनक कुंडल पहना अभिमान
पगडंडी बेहाल पड़ी है
भिक्षुक का क्रंदन।
मंच चढ़ मानपत्र बोलें
वचन में मिथ्याएँ घोलें
स्वार्थ-प्रेरित है अभिनंदन
उधारी गीतों का वंदन
परवश वाह-वाह होठों पर
भूखे आमंत्रण।
२५ मई २००९ |