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चैन उड़ाती रातें
चैन उड़ाती रातें आईं
धूल उडा़ते दिन आए हैं।
सीधी राह गुज़रना मुश्किल
ऐसे दौर कठिन आए हैं।
सुख की नींद हमें भी मिलती
जो ख़ुद हम नादान न होते
काश, छ्तों को आँखें होतीं,
दीवारों के कान न होते
फिर भी पूरब की खिड़की से
क्या उजियारे बिन आए हैं?
बेमानी हैं नाते-रिश्ते
पास-पड़ोस असलहों वाले
आँखें जख़्मी, सपने घायल
और जबानों पर हैं ताले
घर के लोग सयाने कितने
हम उँगली पर गिन आए हैं।
हम ऐसे राजा के बेटे
जिनके लिए मॄगदाव लिखा है
एक अदद लम्बा निर्वासन
कुनबे का बिखराव लिखा है
फिर भी बन-बन भटकाने को
जब-तब हेम हिरन आए हैं।
१० जनवरी २०११
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