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अनुभूति में शचीन्द्र भटनागर की रचनाएँ-

गीतों में-
अवकाश नहीं
चाहत
झुलसी धरती
फगुनाए दिन
याद

 

याद

इस जगह आकर पुराने दिन
याद फिर से आ रहे हैं

पैंठ की सहजात भीड़े
और मेले
खो गए
पूर्वाग्रही से अंधड़ों में
खा रही है प्राण को दीमक निरंतर
आज पीपल और तुलसी की जड़ों में

वे खुले गोबर लिपे आँगन
हर पहर बतिया रहे हैं

शोर में डूबे नगर में
उग रहे हैं
अनवरत कंक्रीट के
जंगल असीमित
बढ़ रहा है इन अँधेरे जंगलों में
हर तरफ विकराल दावानल अबाधित

लौट जाने के लिए अनगिन
भाव अब बहुरा रहे हैं

इस तरह अब चल पड़ी
पछुआ हवाएँ
देह-मन दोनों
दरकते जा रहे हैं
जामुनी मुस्कान, आमों की मिठासें
सभ्यतम संकेत ढकते जा रहे हैं

सावनी धन के हजारों ऋण
आँख को बिरमा रहे हैं

२३ सितंबर २०१३

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