उभरते हैं रेत पर
उभरते हैं रेत पर
सूखी नदी के पाँव
पाँव जिन में गति का
एहसास होता है
हो भले छोटा मगर
इतिहास होता है
किनारों के पेड़ सब सूखे मिले
और टुकड़ों में बटी है छाँव
हवाएँ प्यासी जहाँ
दम तोड़ देती हैं
डालियाँ पत्ते स्वयं ही
छोड़ देती हैं
आज भी सुनसान तट पर देखिए
समय की टूटी पड़ी है नाव
धार थी जब पंछियों ने
गीत गाए थे
दो तटों पर आ मिले
अपने पराए थे
रेत में बिखरे पड़े हैं नीड़ के तिनके
और उजड़े गाँव
24 जनवरी 2007
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