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अनुभूति में भगवान स्वरूप सरस की रचनाएँ-

गीतों में-
आग से मत खेल
आदमी
और ऊँचे
जब-जब भी भीतर होता हूँ
तुम्हारे इस नगर में

 

जब-जब भी भीतर होता हूँ

जब-जब भी भीतर होता हूँ
आँखें बन्द किये
लगता, जैसे
जलते हुए सवालों-
पर लेटा हूँ ज़हर पिये।

दबे हुए अहसास
सुलग उठते हैं सिरहाने।
प्रतिबन्धों के फन्दे
कसते जाते पैंताने।

लगता, जैसे
कुचली हुई देह पर कोई
चला गया हो लोहे के पहिये।

१५ दिसंबर २०१६

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