अनुभूति में
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
की रचनाएँ-
नए दोहे-
प्रकृति के दोहे
नई रचनाओं में-
आँखें रहते सूर हो गए
अपने सपने
चुप न रहें
मीत तुम्हारी राह हेरता
मौन रो रही कोयल
संध्या के माथे पर
गीतों में-
ओढ़ कुहासे की चादर
कागा आया है
पूनम से आमंत्रण
मगरमचछ सरपंच
सूरज ने भेजी है
दोहों में-
फागुनी दोहे |
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प्रकृति के दोहे
ले वानस्पतिक औषधि, रहिये
सदा प्रसन्न।
जड़ी-बूटियों की फसल, करती धन-संपन्न।।
पादप-औषध के बिना, जीवन रुग्ण-विपन्न।
दूर प्रकृति से यदि 'सलिल', लगे मौत आसन्न।।
पाल केंचुआ बना ले, उत्तम जैविक खाद।
हरी-भरी वसुधा रहे, भूले मनुज विषाद।।
सेवन ईसबगोल का, करे कब्ज़ को दूर।
नित्य परत जल पीजिये, चेहरे पर हो नूर।।
अजवाइन से दूर हो, उदर
शूल, कृमि-पित्त।
मिटता वायु-विकार भी, खुश रहता है चित्त।।
ब्राम्ही तुलसी पिचौली, लौंग नीम जासौन।
जहाँ रहें आरोग्य दें, मिटता रोग न कौन?
मधुमक्खी पालें 'सलिल', है उत्तम उद्योग।
शहद मिटाता व्याधियाँ, करता बदन निरोग।।
सदा सुहागन मोहती, मन फूलों से मीत।
हर कैंसर मधुमेह को, कहे गाइए गीत।।
कस्तूरी भिन्डी फले, चहके लैमनग्रास।
अदरक हल्दी धतूरा, लाये समृद्धि पास।।
बंजर भी फूले-फले, दें
यदि बर्मी खाद।
पाल केंचुए, धन कमा, हों किसान आबाद।।
भवन कहता घर 'सलिल', पौधें हों दो-चार।
नीम आँवला बेल संग, अमलतास कचनार।।
मधुमक्खी काटे अगर, चुभे डंक दे पीर।
गेंदा की पाती मलें, धरकर मन में धीर।।
पथरचटा का रस पियें, पथरी से हो मुक्ति।
'सलिल' आजमा देखिये, अद्भुत है यह युक्ति।।
घमरा-रस सिर पर मलें, उगें-घनें हों केश।
गंजापन भी दूर हो, मन में रहे न क्लेश।।
प्रकृति-पुत्र बनकर 'सलिल', पायें-दें आनंद।
श्वास-श्वास मधुमास हो, पल-पल गायें छंद।।
२८ फरवरी २०११ |