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अनुभूति में विनोद दुबे की रचनाएँ—

छंदमुक्त में-
प्रवासी
बनारस


 

 

प्रवासी

वहाँ भी हम नहीं पूरे
यहाँ अब तक आभासी हैं
कहीं का जन्म है अपना
कहीं के हम प्रवासी हैं

ये पहली पीढ़ी के हर
प्रवासी के दिल का किस्सा है
जितना इसमें विदेश
उतना ही भारत का हिस्सा है

यहाँ दौलत, यहाँ शोहरत
यहाँ जो हाल है अपना
इसी से पहचान है अपनी
अब यही ससुराल है अपना

मगर कैसे उसे भूलें
ऐसा जायका था वो
जहाँ जन्मे, हुनर सीखा
शायद मायका था वो

वहाँ के तंगहाली की
यहाँ जब बात आती है
माथे पर शिकन की कुछ
लकीरें खिंच ही जाती हैं

वहाँ की बुलंदियों का
कहीं जो जिक्र होता
सीना फूल जाता है
हमें भी फक्र होता है

पीढ़ियाँ बदल रही है
रिश्ता पीछे छूट रहा है
पकड़ी है रस्सी मुट्ठी में
पर रेशा-रेशा टूट रहा है

बच्चे समझते हैं हॉलीवुड
कब तक बॉलीवुड दिखाएँगे
उन्हें जिद है पिज्जा बर्गर की
कब तक चावल-दाल खिलाएँगे

ऐ सड़क, बिजली, विकास
तुम क्यों इतनी देर से आए
तुम्हारे ही तलाश में कई
मुल्क से हो गए पराए

अब यही नियति इस देह की
इसका दो तरफा व्यापार रहेगा
एक मिट्टी ने पाला पोसा
दूजे का नमक उधार रहेगा

वहाँ भी हम नहीं पूरे
यहाँ अब तक आभासी हैं
कहीं का जन्म है अपना
कहीं के हम प्रवासी हैं….

१ सितंबर २०२३

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